आमतौर पर छोटी मोटी बिमारियों मसलन सर्दी जुकाम बुखार कटना छीलना खांसी होने पर लोग डॉक्टर्स के पास नहीं जाते। डॉक्टर की फ़ीस के बचाने के लिए जनता सीधे केमिस्ट शॉप पहुँचती है और केमिस्ट के कहे अनुसार दवा का सेवन करना शुरू कर देती है। चूँकि दवा बगैर डॉक्टर के प्रिस्क्रिप्शन या सलाह के ली गई है ऐसे में केमिस्ट भी दवा का पक्का बिल नहीं नहीं देते। एक्ट का उलंघन भी होता है और राजस्व को भी नुकसान होता है। यह हाल किसी एक राज्य का नहीं अमूमन पुरे देश में यही हाल है। एक अनुमान के अनुसार देश में ६०-७० फीसदी दवा आमलोग बगैर डॉक्टर के प्रिस्क्रिप्शन के सिर्फ केमिस्ट के भरोसे पर खरीदते हैं। एक दूसरा तथ्य है कि आज भी करीब ७०-८० फीसदी केमिस्ट शॉप पर फार्मासिस्ट उपलब्ध नहीं है जो दवाओं के इफेक्ट, साइड इफेक्ट व अन्य सही जानकारी दे सकें। देश में ड्रग सेफ्टी बड़ा मसला है इस मामले में हमारी सरकारों ने कभी भी गंभीरता से विचार नहीं किया। आम जनता के लिए सरकार ने ड्रग एन्ड कास्मेटिक एक्ट, फार्मेसी एक्ट और फार्मेसी प्रेक्टिस रेगुलेशन जैसे कई नियम कानून बनाये तो हैं पर धरातल पर एक्ट इम्प्लीमेंटेशन को लेकर सरकारें और उनकी इम्प्लीमेंटेशन एजेंसी फ़ूड एन्ड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन अबतक सफल नहीं हो सकी हैं। विफलता के पीछे क्या कारण है इसको लेकर बहस हो सकती है। होनी भी चाहिए।
देश के केमिस्टों के मुताबिक ड्रग एक्ट काफी स्ट्रिक्ट है। इसे पूर्ण रूप से धरातल पर लाना कई हद तक मुश्किल है। अगर बात सिर्फ प्रिस्क्रिप्शन ड्रग की करें तो बगैर प्रिस्क्रिप्शन दवा नहीं देने के कानून से कई तरह की व्यवहारिक दिक्कतें होती है। केमिस्टों के अनुसार आमतौर पर छोटी मोटी बीमारियों के लिए मरीज़ डॉक्टर के पास सिर्फ इसलिए नहीं जाते चूँकि जितने में डॉक्टर के फ़ीस देंगे उतने में उनकी दवा ही आ जाती है। फ़र्ज़ कीजिए किसी को मामूली सर्दी जुकाम है। ऐसे में केमिस्ट बड़े ही आराम से एन्टीकोल्ड टैबलेट या फिर एंटी एलर्जिक दवा दे देता। जिसकी कीमत बमुश्किल सौ रुपए होती है। वही डॉक्टर को दिखाने से कोई सौ तो कोई दो सौ रुपए तक ले लेता है। ऐसे में हर कोई अपना बजट कम करने की कोशिश करता है।
मरीज़ों का कहना है कि सर्दी जुकाम बुखार जैसे छोटी मोटी बीमारियों के लिए डॉक्टर को दिखाना मतलब वेफिज़ूल बजट का बढ़ाना है। आमतौर पर छोटी मोटी बीमारी पर भी डॉक्टर कई तरह के टेस्ट लेख देते हैं। जिससे फ़ीस के साथ टेस्ट का खर्च भी बढ़ जाता है। उसके बाद डॉक्टर जो प्रिस्क्रिप्शन देते हैं। वही दवा केमिस्ट खुद अपने अनुभव के आधार पर दे देता है तो फिर डॉक्टर और लैब टेस्ट का अतिरिक्त खर्च वहन क्यों करें ?
ऐसे में प्रिस्क्रिप्शन का फार्मेसी पर पहुंचना एक बड़ी समस्या है। एक तरफ बगैर प्रिस्क्रिप्शन दवा देने से एक्ट का उलंघन होता है तो दूसरी तरफ नहीं देने से कारोबार में नुकसान।
देश में एक बड़ा तबका झोला छाप प्रेक्टिशनरों से भरा पड़ा है। आप यकीं नहीं करेंगे महज़ देश की राजधानी दिल्ली में करीब 30 हज़ार झोला छाप डॉक्टर है जिनके पास कोई डिग्री नहीं वावजूद इसके हर गली मोहल्ले में मरीज़ों का इलाज़ करते आसानी से देखे जा सकते हैं। इसके अलावा आयुष पैथी के चिकित्सक जैसे होम्योपैथी, यूनानी, आयुर्वेदिक यहाँ तक की नेचुरोपैथी और फिज़िओथिरापी के तथाकथित डॉक्टर भी धड़ल्ले से न सिर्फ पर्ची लिखते मिलेंगे बल्कि दवा भी बेचते आराम से देखे जा सकते हैं।
सवाल है कि एलोपैथी की प्रेक्टिस करने वाले इन झोला छापों पर करवाई करने में सरकार सख्ती क्यों नहीं दिखाती ? इसके पीछे कई कारण है। एक स्टडी के अनुसार कई जगहों पर झोला छाप प्रेक्टिशनर सम्बंधित विभाग को महीने की रकम पंहुचा देते हैं और करवाई से बचते हैं वहीँ स्वास्थ्य महकमे के अधिकारी यह कहकर पल्ला झाड़ते है कि वे छोटी मोटी बिमारी का इलाज़ करते हैं। वे इसे गंभीरता से नहीं लेते।
झारखण्ड में झोला छाप चिकित्सकों पर कारवाई करने की जगह उन्हें विशेष ट्रेनिंग देकर ग्रामीण छेत्रों में नियुक्त करने की प्रक्रिया शुरू की गई। वहीँ छत्तीसगढ़ में लम्बे समय से इंटर साइंस के कैंडिडेट को तीन साल का पाठ्यक्रम करवा कर उन्हें पीएचसी और सीएससी में न सिर्फ नियुक्त किया गया बल्कि उन्हें मेडिकल अफसर तक पदवी देकर गजटेड होने का अवसर भी दिया गया। महाराष्ट्र यूपी समेत कुछ राज्यों में आयुष पद्धति के चिकित्सकों को एलोपैथी प्रिस्क्रिप्शन लिखने के अधिकार तक मिले हैं। अगर राष्ट्रीय स्वस्थ मिशन के तहत चल रही योजनाओं की बात करें तो ज्यादातर आयुष पद्धति के चिकित्सकों को अलोपथी दवा लिखने की छूट है। यहाँ मेडिकल एक्ट के नियमों को दरकिनार किया गया है।
आधिकारिक रूप से भले अफसर मंत्री बात न करें पर जब बात एलोपैथिक दवा की प्रैक्टिस पर आती है तो वे भले ही आयुष पद्धति को अंग्रेज़ी दवाइयों से अलग रखने की वकालत तो करते हैं पर देश में डॉक्टरों की कमी का हवाला देते हुवे इसे अपनी मज़बूरी बताने से नहीं चूकते।
उपरोक्त बातों से परे उत्तराखंड, यूपी, बिहार, झारखण्ड, मध्यप्रदेश, असम समेत कई जगहों पर सरकारी अस्पतालों में विशेषकर ग्रामीण छेत्रों में जहाँ डॉक्टर की तैनाती तो है पर वे अस्पताल नही जाते या जाना नही चाहते। ऐसे में अस्पतालों में तैनात सरकारी फार्मसिस्ट ही प्रिस्क्रिप्शन से लेकर इलाज़ तक करते हैं। यह बात कई बार मीडिया में सुर्खियां बनी हैं।
उत्तराखंड में पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत का एक विडिओ वायरल हुवा था जहाँ वे मीडिया को कह रहे थे अगर ग्रामीण छेत्रों में डॉक्टर नहीं जाएंगे तो वहाँ उनकी जगह वे फार्मसिस्ट को तैनाती देंगे। आम जनता को बगैर इलाज़ वे नही छोड़ सकते। बताऊँ कि उत्तराखंड में फार्मासिस्ट की तैनाती की पूरी तैयारी वहां की सरकार ने कर ली थी यहाँ तक कि गवर्नमेंट आर्डर तक में यह स्पस्ट जिक्र था की डॉक्टर की अनुपस्थिति में फार्मासिस्ट मरीज़ों का इलाज़ करेंगे।
पिछले साल डिप्लोमा फार्मासिस्ट एसोसिएशन के पदाधिकारियों ने यूपी में सीएम योगी आदित्यनाथ से बातचीत के दौरान फार्मासिस्टों को प्रिस्क्रिप्शन लिखने के अधिकार दिए जाने की बात कही थी। संघ के प्रमुख संदीप बडोला जी ने अपनी तर्कों से सीएम योगी आदित्यनाथ को संतुष्ट भी किया था। वार्ता के निष्कर्ष में सीएम योगी ने अपनी टिपण्णी के दौरान यहाँ तक कहा था कि एलोपैथी के मामले में अन्य की तुलना में वास्तव में फार्मासिस्ट डिज़र्व करते हैं।
बीते साल जब दिल्ली स्थित एफडीए हेडक़्वार्टर में एनएमसी बिल पर चर्चा हो रही थी तो पूर्व ड्रग कंट्रोलर जेनरल ऑफ़ इंडिया डॉ. जी एन सिंह तक ने माना था कि कुछ हद तक फार्मासिस्ट को प्रिस्क्रिप्शन लिखने की छूट दी जानी चाहिए। इससे छोटी मोटी बीमारियों का इलाज़ फार्मासिस्ट कर सकेंगे इसी बहाने मामूली बिमारियों के लिए मरीज़ों को प्रिस्क्रिप्शन के लिए डॉक्टर के पास नही जाना पड़ेगा। फार्मेसी में मौजूद रजिस्टर्ड फार्मासिस्ट फ़ौरन ही प्रिस्क्रिप्शन बनाकर दवा डिस्पेंस कर सकेंगे। एक्ट का वोइलशन भी नहीं होगा मरीज़ों को भी राहत मिलेगी।
हाल में ही ओडिसा सरकार ने फार्मासिस्टों को प्रिस्क्रिप्शन लिखने का अधिकार देने के लिए कमिटी का गठन किया है।
उपरोक्त बातों का सार यह है कि सरकारों को इस बात के लिए कन्विंस करना है कि चिकित्सा के छेत्र में डॉक्टर के बाद फार्मासिस्ट एक अच्छा विकल्प हैं। अगर फार्मासिस्ट को प्रिस्क्रिप्शन और इलाज़ का अधिकार दे तो फैसला गलत नही होगा।
देश के फार्मासिस्ट और फार्मासिस्ट संगठनों को चाहिए कि वे इस मुद्दे को जनप्रतिनिधियों के सामने जोर शोर से उठायें। एकेडमिक सेक्टर में काम कर रहे बुद्धिजीवियों को चाहिए कि वे पीसीआई पर दबाव बनाएंl संगठनों को चाहिए कि प्रिस्क्रिप्शन लिखने के मुद्दे पर सभी एक मंच पर आएं और राष्टीय स्तर पर मजबूती प्रदान करें ताकि आगे मार्ग प्रशस्त हो सके।
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